अजीत द्विवेदी
देश में चुनाव का सीजन चल रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद दो राज्यों के चुनाव हुए हैं और दो अन्य राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। अगर पूछा जाए कि इस साल के हर चुनाव का केंद्रीय मुद्दा क्या था तो जवाब होगा, मुफ्त की रेवड़ी। चुनाव में और भी बहुत सी चीजें होती हैं लेकिन मुख्य रूप से मुफ्त की रेवड़ी पर ही सभी पार्टियों ने चुनाव लड़ा। तभी जब दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने गर्व से कहा कि उन्होंने दिल्ली के लोगों को ‘छह मुफ्त की रेवड़ी’ दी है और सातवीं रेवड़ी देने वाले हैं तो आश्चर्य नहीं हुआ। आखिर मुफ्त की रेवड़ी के आधुनिक संस्करण के जनक केजरीवाल ही हैं। इसलिए अगर वे इस पर गर्व कर रहे हैं और प्रधानमंत्री की ओर से बोले गए इस जुमले को तमगा बना कर सीने पर टांक रहे हैं तो उस पर क्या हैरान होना?
केजरीवाल ने अपने को और अधिक एक्सपोज करते हुए कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी प्रचार करने को तैयार हैं अगर वे एनडीए के शासन वाले 22 राज्यों में बिजली फ्री कर दें। सोचें, कैसी वैचारिक, नैतिक और राजनीतिक गिरावट है? जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी को केजरीवाल, उनकी पार्टी और उनका पूरा गठबंधन संविधान के लिए, देश के लिए और समाज के लिए खराब मानता है उनके लिए भी सिर्फ बिजली फ्री होने पर प्रचार किया जा सकता है! क्या यही केजरीवाल की वैचारिक प्रतिबद्धता है कि बिजली फ्री हो जाए तो मोदी के लिए भी प्रचार करेंगे? क्या इसी आधार पर मोदी के खिलाफ लड़ेंगे?
सवाल है कि अगर मोदी की पार्टी ने दिल्ली में बिजली फ्री कर दी तो क्या करेंगे केजरीवाल? अगर मोदी ने बिजली के साथ साथ वो तमाम चीजें मुफ्त में देने की घोषणा कर दी, जो केजरीवाल की सरकार दे रही है तो क्या केजरीवाल दिल्ली की सत्ता छोड़ देंगे और मोदी के लिए प्रचार करेंगे? ऐसा तो कतई नहीं होगा क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडऩे के अगले दिन से ही उनकी बेचैनी बढ़ी है और वे नवंबर में ही चुनाव कराने की चुनौती भाजपा को दे रहे हैं। फरवरी तक इंतजार करने का धीरज भी उनमें नहीं दिख रहा है!
इसलिए केजरीवाल की बातों पर हैरानी नहीं होती है। वे इस तरह की विरोधाभासी और बेतुकी बातें करते रहते हैं। हैरानी इस बात पर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी का जुमला गढ़ा और इसका मजाक उड़ाया फिर भी उनकी पार्टी इसी की राजनीति कर रही है! उन्होंने कहा था कि मुफ्त की रेवड़ी की राजनीति से देश की अर्थव्यवस्था बरबाद हो जाएगी। लेकिन उनकी पार्टी अब इस राजनीति की चैंपियन बन गई है। भाजपा दूसरी सभी पार्टियों को इस राजनीति में पीछे छोड़ रही है। अभी झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने महिलाओं को नकद पैसे देने के लिए मुख्यमंत्री मइया सम्मान योजना शुरू की, जिसमें महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपए दिए जा रहे हैं तो भाजपा ने गोगो दीदी योजना का ऐलान किया, जिसमें सरकार बनने पर हर महिला को हर महीने 21 सौ रुपए दिए जाएंगे।
यानी जितना हेमंत सरकार देगी उसका दोगुना। इसके अलावा भी भाजपा ने बहुत कुछ मुफ्त में देने का ऐलान किया है। उसने महाराष्ट्र में लडक़ी बहिन योजना शुरू की है, जिसमें हर महीने महिलाओं को डेढ़ हजार रुपए दिए जा रहे हैं। इस योजना के मद पर हर साल 46 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। तभी पिछले दिनों केंद्रीय सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि इस योजना पर सब्सिडी इतनी ज्यादा है कि बाकी योजनाओं की सब्सिडी का पैसा समय पर दिया जा सकेगा या नहीं यह तय नहीं है।
इसका मतलब है कि मुफ्त की रेवड़ी वाली योजनाओं से सभी सरकारों का बजट प्रभावित हो रहा है इसके बावजूद सभी पार्टियों में होड़ मची है। पार्टियों के नेता गर्व से कह रहे हैं कि उन्होंने छह मुफ्त की रेवड़ी दी है और सातवीं देंगे। हैरानी नहीं होगी, अगर आम आदमी पार्टी के मुकाबले में भाजपा की ओर से आठ वस्तुएं या सेवाएं मुफ्त में देने का वादा किया जाए। यह होड़ ऐसी है कि झारखंड में भाजपा ने महिलाओं को 21 सौ रुपए हर महीने देने का ऐलान किया तो सत्तारूढ़ जेएमएम ने कहा है कि अगली सरकार बनी तो वह एक हजार रुपए की राशि को बढ़ा कर ढाई हजार कर देगी।
सोचें, पार्टियां राजस्व का स्रोत नहीं बता रही हैं। राजस्व बढ़ाने के उपायों की चर्चा नहीं हो रही है। बुनियादी ढांचे के विकास पर बात नहीं हो रही है। देश और राज्य के संरचनात्मक विकास की चर्चा नहीं हो रही है। लोगों के जीवन में गुणात्मक बदलाव लाने की बातें नेपथ्य में चली गई हैं। अब सिर्फ मुफ्त की रेवड़ी की बात हो रही है। चुनाव जीतने के लिए ऐसे ऐसे वादे किए जा रहे हैं, जिन्हें पूरा करने में राज्यों का वित्तीय ढांचा चरमरा रहा है। सरकारों के पास वेतन और पेंशन देने के पैसे पूरे नहीं हो रहे हैं। सरकारें तय सीमा से कहीं ज्यादा कर्ज ले चुकी हैं और उनके राजस्व का बड़ा हिस्सा कर्ज का ब्याज चुकाने में जा रहा है। लेकिन पार्टियों को इसकी परवाह नहीं है। उनको किसी तरह से सत्ता में आना है, उसके बाद चाहे जो हो। चुनाव जीतना राजनीति का परम लक्ष्य हो गया है। पार्टियां और उसके नेता सोच नहीं रहे हैं कि उनकी यह राजनीति एक दिन देश की पूरी अर्थव्यवस्था को मलबे के ढेर में बदल देगी।
पार्टियों का सत्ता का अंध मोह तो समझ में आता है। उनके लिए सत्ता सर्वोपरि है और वे इसके लिए ही राजनीति करती हैं। लेकिन ज्यादा हैरानी आम नागरिकों की सोच को लेकर हो रही है। बुनियादी ढांचे का विकास नहीं होने, शिक्षा व स्वास्थ्य की व्यवस्था बेहतर नहीं होने, रोजगार की जरुरत पूरी नहीं होने और भयंकर महंगाई व गरीबी के बावजूद वे मुफ्त की रेवड़ी के जाल में फंसे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि सरकारें उनका खून चूस रही हैं। जिस तरह से स्वच्छैक रक्तदान करने पर स्वंयसेवी संस्थाएं और अस्पताल वाले रक्तदान करने वाले को जूस का एक ट्रेटा पैक देते हैं।
उसी तरह सरकारें अलग अलग किस्म के टैक्स के जरिए जनता की जेब खाली कर रही हैं यानी उनका खून निकाल रही हैं और बदले में जूस का एक टेट्रा पैक यानी मुफ्त की रेवड़ी दे रही हैं। रक्तदान के बाद तो फिर शरीर में खून बन जाता है लेकिन ऐसे ही लोगों की कमाई नहीं बढ़ रही है। जब तक लोग अपने व्यापक और दूरगामी हितों को देख कर मतदान नहीं करेंगे तब तक पार्टियां मुफ्त की रेवड़ी के नाम पर उनका वोट लेती रहेंगी और उनका शोषण करती रहेंगी।
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