विनीत नारायण
पूरी दुनिया भीषण गर्मी से झुलस रही है। हजारों लोग गर्मी की मार से बेहाल हो कर मर चुके हैं। दुनिया के हर कोने से एक ही आवाज उठ रही है, कि पेड़ बचाओ-पेड़ लगाओ। क्योंकि पेड़ ही गर्मी की मार से बचा सकते हैं।ये हवा में नमी को बढ़ाते हैं और मेघों को आकर्षित करते हैं, जिससे वष्रा होती है। आप दो करोड़ की कार को जब पार्किंग में खड़ा करते हैं तो किसी पेड़ की छांव ढूंढ़ते हैं। क्योंकि बिना छांव के खड़ी आपकी कार दस मिनट में भट्टी की तरह तपने लगती है। इस बार हज में जो एक हजार से ज्यादा लोग अब तक गर्मी से मरे हैं, वे शायद न मरते अगर उन्हें पेड़ों की छाया नसीब हो जाती।
चलो वहां तो रेगिस्तान है पर भारत तो सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम, शस्यश्यामलाम वाला देश है जिसका वर्णन हमारे शास्त्रों, साहित्य और इतिहास में ही नहीं चित्रकारी और मूर्तिकला में भी परिलक्षित होता है। पर दुर्भाग्य देखिए कि आज भारत भूमि तेजी से वृक्षविहीन हो रही है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि तमाम प्रयासों के बावजूद भारत का हरित आवरण भूभाग का कुल 24.56 प्रतिशत ही है। ये सरकारी आंकड़े हैं, जमीनी हकीकत आप खुद जानते हैं। अगर हवाई जहाज से आप भारत के ऊपर उड़ें तो आपको सैकड़ों मीलों तक धूल भरी आंधियां और सूखी जमीन नजर आती है। पर्यावरण की दृष्टि से कुल भूभाग का 34 फीसद अगर हरित आवरण हो तो हमारा जीवन सुरक्षित रह सकता है।
भवन निर्माताओं की अंधी दौड़, बढ़ता शहरीकरण और औद्योगीकरण, आधारभूत ढांचे को विकसित करने के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाएं, जंगलों के कटान के लिए जिम्मेदार हैं। मानवशास्त्र विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि पर्यावरण की सुरक्षा का सबसे बड़ा काम जनजातीय लोग करते हैं। वे कभी गीले पेड़ नहीं काटते, हमेशा सूखी लकडिय़ां ही चुनते हैं। वृक्षों की पूजा करते हैं। पर जब खान माफिया या बड़ी परियोजना की गिद्धदृष्टि वनों पर पड़ती है तो वन ही नहीं, वन्य जीवन भी कुछ महीनों में नष्ट हो जाता है। पर्यावरण की रक्षा के लिए बने कानून और अदालतें केवल कागजों पर दिखाई देते हैं। सनातन धर्म सदा से प्रकृति की पूजा करता आया है।
चिंता की बात यह है कि आज सनातन धर्म के नाम पर ही पर्यावरण का विनाश हो रहा है। समाचार पत्रों से सूचना मिली है कि कांवडिय़ों के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक विशिष्ट मार्ग का निर्माण किया जाना है, जिसके लिए 33 हजार वृक्षों को काटा जाएगा। इससे पर्यावरणवादियों को ही नहीं, आम जन को भी बहुत चिंता है। दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) को सूचित किया है कि गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर में फैली 111 किलोमीटर लंबी कांवड़ मार्ग परियोजना के लिए 33 हजार से अधिक पूर्ण विकसित पेड़ों और लगभग 80 हजार पौधों को काटा जाएगा। गौरतलब है कि इस परियोजना में 10 बड़े पुल, 27 छोटे पुल और एक रेलवे ओवरब्रिज का निर्माण शामिल है और इस परियोजना की लागत 658 करोड़ रु पये होगी। सोचने वाली बात है कि इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों को काटने की योजना ऐसे समय में आई है जब भारत के कई राज्य कई हफ्तों से भीषण गर्मी की चपेट में हैं। भीषण तापमान ने 200 से अधिक लोगों की जान ले ली है।
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पहले यूपी सरकार को तीन जिलों में परियोजना के लिए कुल 1,10,000 पेड़-पौधों को काटने की अनुमति देने के बाद नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मामले का स्वत: संज्ञान लिया है। इस मामले की अगली सुनवाई जुलाई, 2024 के लिए निर्धारित की गई है और एनजीटी ने यूपी सरकार से परियोजना का विस्तृत विवरण मांगा है, जिसमें काटे जाने वाले पेड़ों का विवरण भी शामिल है। हजारों पेड़ों की इस कदर निर्मम कटाई से क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। तापमान में वृद्धि जारी रहेगी, बारिश का पैटर्न भी बाधित होगा और हवा और भी जहरीली हो जाएगी। हमें विकास और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच संतुलन बनाना होगा। परियोजना की पर्यावरणीय लागत की भरपाई के लिए यूपी सरकार ने ललितपुर जिले में वनीकरण के लिए 222 हेक्टेयर भूमि की चिन्हित की है, जो इस क्षेत्र से, जहां से पेड़ काटे जाएंगे काफी दूर है। क्या यह वनीकरण, कांवड़ यात्रा मार्ग पर शुरू होने जा रही परियोजना की लागत के अनुरूप मुआवजा होगा?
कुछ वन्य प्रेमी संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए एक ऑनलाइन याचिका भी दायर की है, जिसे हजारों लोगों का समर्थन मिल रहा है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बादल फटने के बाद उत्तराखंड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहां और अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का तांडव जारी है। चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जांच समितियां या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्त्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। खमियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को।
हाल के हफ्तों में और उससे पहले उत्तराखंड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही कांप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें।
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