अजीत द्विवेदी
सरकार गठन के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आत्मविश्वास लौट आया है। नतीजों से जो सेटबैक लगा था वे उससे उबर गए दिखते हैं। उन्होंने अपने हिसाब से सहयोगी पार्टियों को हैंडल किया है। अपने हिसाब से उनको मंत्री पद दिए हैं और कामचलाऊ विभाग देकर उनको निपटाया है। इसके बावजूद ऐसा लग रहा है कि तीसरी सरकार भाजपा के या स्वंय मोदी के एजेंडे से नहीं चलेगी, बल्कि गठबंधन के एजेंडे से चलेगी। भले गठबंधन की सरकार में 82 फीसदी सांसद भाजपा के हैं और वह उस तरह से सहयोगी पार्टियों पर निर्भर नहीं है, जैसी मनमोहन सिंह की सरकार थी या उससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।
इसके बावजूद मोदी को कामकाज में बहुत संतुलन बनाने की जरुरत होगी क्योंकि दूसरी ओर विपक्ष भी पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा मजबूत और एकजुट है। तभी ऐसा लग रहा है सरकार तमाम विवादित एजेंडे को स्थगित कर सकती है। हालांकि मुश्किल यह है कि भाजपा को भी राज्यों में चुनाव लडऩा है और पांच साल बाद अपना एजेंडा लेकर जनता के बीच जाना होगा। तभी यह देखना दिलचस्प होगा कि विवादित मुद्दों या जिन मुद्दों पर आम सहमति नहीं है उनको लेकर सरकार का क्या रुख होता है। सरकार उसे ठंडे बस्ते में डालती है या सहयोगियों पर दबाव बना कर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाती है?
सरकार के लिए सबसे पेचीदा मामला परिसीमन और महिला आरक्षण का हो गया है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी साल में नारी शक्ति वंदन कानून पास कराया। संसद की नई इमारत में यह पहला कानून था, जिसका बिल पेश किया गया था। मोदी सरकार ने इस बिल को उस रूप में पेश नहीं किया, जिस रूप में इसे पहले एक सदन की मंजूरी मिल चुकी थी। सरकार नया मसौदा ले आई, जिसमें यह शर्त जुड़ी हुई है कि परिसीमन के बाद 2029 में महिला आरक्षण को लागू किया जाएगा। महिला आरक्षण से किसी को समस्या नहीं है। सरकार और उसकी सहयोगी पार्टियों के अलावा विपक्षी पार्टियां भी महिला आरक्षण के समर्थन में हैं। लेकिन परिसीमन का विरोध तय है। विपक्ष के साथ साथ सरकार की कई सहयोगी पार्टियां भी परिसीमन का विरोध कर सकती हैं।
अभी तक यह कहा जा रहा है कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होगा, जिसमें दक्षिण भारत से लोकसभा सीटों की संख्या कम हो सकती है और उत्तर भारत के राज्यों में सीटें बढ़ सकती हैं। तभी दक्षिण भारत की पार्टियां जनसंख्या के आधार पर परिसीमन का विरोध करती हैं। ध्यान रहे आंध्र प्रदेश की टीडीपी और कर्नाटक की जेडीएस दोनों सरकार का समर्थन कर रहे हैं लेकिन परिसीमन पर इनका समर्थन हासिल करना आसान नहीं होगा। सो, यह सरकार को उलझाने वाली स्थिति है और उसने तय किया हुआ है कि 2029 के चुनाव तक परिसीमन हो जाएगा और महिला आरक्षण लागू किया जाएगा।
इसी तरह भाजपा ने पूरे देश में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी लागू करने का वादा किया है। उत्तराखंड सरकार ने जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में बनी कमेटी की सिफारिशों के आधार पर इसे अपने राज्य में लागू कर दिया है। भाजपा ने इसे अपने चुनाव घोषणापत्र में भी शामिल किया है और इस बार के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री तक सभी इसका वादा करते रहे हैं। लेकिन सरकार बनने से पहले ही भाजपा की सहयोगी जनता दल यू ने कहा कि इस पर सबकी सहमति बनाने की जरुरत है। ऐसा लग रहा है कि धर्म के मामले में दखल देने वाला कोई भी कानून लाना अब संभव नहीं होगा।
मुस्लिम आरक्षण खत्म करने की बातें भी ठंडे बस्ते में जाएंगी क्योंकि जनता दल यू और टीडीपी दोनों इसके पक्ष में हैं। हालांकि भाजपा की ओर से आधिकारिक रूप से नहीं कभी नहीं कहा गया है कि लेकिन उसके समर्थक वक्फ बोर्ड कानून में बदलाव और धर्मस्थल कानून की समाप्ति की बात भी कर रहे थे। कहा जा रहा था कि चार सौ सीटें आएंगी तो वक्फ बोर्ड कानून को बदल कर वक्फ की सारी संपत्ति सरकार ले लेगी और नरसिंह राव सरकार के समय बना धर्मस्थल कानून बदल दिया जाएगा ताकि कथित तौर पर हिंदू मंदिरों के स्थान पर बने मस्जिदों को वापस हासिल किया जा सके। ऐसी कोई भी बात अब सरकार के एजेंडे में नहीं होगी।
लेकिन ऐसा नहीं है कि काशी और मथुरा का मसला रूक जाएगा। ध्यान रहे इसमें सरकार कुछ नहीं कर रही है। जो कुछ भी हो रहा है कि वह अदालत के आदेश से हो रहा है। वाराणसी की अदालत ने काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे करने और तहखाने में शृंगार गौरी की पूजा करने की अनुमति दी। इस पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक नहीं लगाई। इसी तरह मथुरा की शाही ईदगाह का भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण यानी एएसआई से सर्वे कराने का आदेश भी मथुरा की अदालत ने दिया है। उधर मध्य प्रदेश के धार में भोजशाला और कमाल मौला मस्जिद के सर्वे का आदेश भी अदालत ने दिया है। इसमें सरकार कुछ नहीं कर रही है।
वह सिर्फ अदालत के आदेश के पालन कर रही है। अगर अदालती कार्रवाई मंथर गति से भी चलती रहती है तो यह मामला सुलगता रहेगा। अंदर अंदर उबाल बना रहेगा। अदालती कार्रवाई में दखल देने के लिए सहयोगी पार्टियां सरकार पर दबाव नहीं डाल पाएंगी। ध्यान रहे विपक्ष खुद ही कहता है कि अयोध्या में राममंदिर का श्रेय सरकार को नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह अदालत के आदेश से बना है। इसका मतलब है कि विवादित जगहों को लेकर अदालत का आदेश आता है तो विपक्ष भी उसे मानने को तैयार है।
इसी तरह ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के एजेंडे में भी दिक्कत नहीं है। महिला आरक्षण और परिसीमन के साथ यह तीसरा मुद्दा है, जिसे 2029 में लागू करने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया है। इसके लिए उनकी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। इसने चरणबद्ध तरीके से काम शुरू करने और 2029 में देश के सारे चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की है।
जिस समय कोविंद कमेटी इस मसले पर देश की सभी पार्टियों से राय मांग रही थी उस समय नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू ने इसका समर्थन किया था। तेलुगू देशम पार्टी को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि आंध्र प्रदेश में तो विधानसभा के चुनाव लोकसभा के साथ ही होते हैं। सो, अगर भाजपा की ये दोनों बड़ी सहयोगी पार्टियां सहमत होती हैं तो सरकार के सारे चुनाव एक साथ कराने के एजेंडे पर आगे बढऩे में कोई दिक्कत नहीं होगी। सो, कुछ राजनीतिक मसले तो गठबंधन की सरकार के बावजूद आगे बढ़ेंगे लेकिन परिसीमन, यूसीसी या धर्म से जुड़े मुद्दों पर सरकार के लिए सहमति बनाने की मजबूरी होगी।
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